Monday 5 December, 2011

तुम्हारा क्या है…?

 याद है तुम्हें,
कैसे खीज जाती थी मैं,

तुम्हारी उटपटांग शरारतों पे,
मुझे तंग करने की तुम्हारी चालाकी  भरी  कोशिशों पे,
जिनमे सफल हो ही जाते थे तुम हर बार,
और मेरे चिढ जाने पर कहते थे,
”तुम्हें चिढाने में बड़ा मजा आता है…!!

और मैं खीज कर कह उठती थी,
”ऐसा भी कोई करता है भला?”

और तुम बड़े मजे से कहते थे,
”मैं करता हूँ ना”!!

और मैं कहती थी,,”तुम तो ‘बुद्धू’ हो,,तुम्हारा क्या है…?”

कैसे तुम मेरा हाथ पकड़कर,
अपने पास खींचकर  धीरे से
मेरे कान में कहते थे,
”मेरी तुम हो”….

बाखुदा.! एक गुमान आ जाता था खुद पर…..

और फिर तो अक्सर
तुम्हारी किसी भी बात पे,
बिना चिढ़े,,
पर दिखाकर कि मुझे चिढ हो रही है….
कह दिया करती थी मैं,
”तुम्हारा क्या है”?
जवाब में बस वो लफ्ज़  सुनने के लिए…..
उस गुरूर को महसूस करने के लिए…..

बाखुदा.! मेरी ज़िन्दगी का सबसे खूबसूरत पल होता था वो…..

और अब
जब तुम आस पास नहीं हो,
दूर दूर तक नहीं हो,
तुम्हारे न होने के एहसास पर ही
खीज जाती हूँ मैं,
और आदत के मुताबिक कह जाती हूँ,
”ऐसा कोई करता है भला,,”
”मैं करता हूँ ना”,,,सुने बिना ही
कहती हूँ पिघल कर,
”तुम तो बुद्धू हो,तुम्हारा क्या है?”

कि शायद
किसी दिशा से तो जवाब आएगा,
तुम फिर से मेरे पास आकर
मेरे कान में हौले से कहोगे,” मेरी तुम हो…”

आ जाओ ना एक बार प्लीज़..
कह दो ना फिर से….

बाखुदा.! खुद पे गुरूर करने की आज बड़ी चाह हो रही है…!!
 
 
 

2 comments:

  1. सुन्दर...!
    मीठी रोमांस और विरह में पगे उदगार !

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