कुछ ख्वाहिशें हैं,
अरमानों जैसी,
सांस ले रही हैं,
बंद मुट्ठी में,
उड़ना चाहती हैं खुली हवा में,
जैसे पिंजरे से निकले हो पंछी,
पर सिसकती हैं,
क्यूंकि
ख्वाहिशें पंछियों के पंख जैसी नहीं होती,
वो तो कटती हैं पतंगों की भांति,
अपनों से ही तो,
कभी हालात तो कभी जिम्मेदारी के मांजे से,
ख्वाहिशों के पंख हैं,
पर हाथ बंधे हैं…..
ऐसे में उन्हें सहेजने वाली मुट्ठी ही,
उनका गला न घोंट दे तो क्या करे…!!!!!!
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